एक इतवार तुम्हारा... एक इतवार मेरा
एक इतवार तुम्हारा... एक इतवार मेरा
अब तो इतवार के इंतजार में पूरा इतवार बीत जाता है
लेकिन मेरा इतवार नहीं आता,
हर दिन सुबह से समय को कामों के पाटों के बीच पीसते पीसते
और तुम्हारे मकान को घर बनाते बनाते
सोम-मंगल-बुध बीतते हैं इतवार के इंतजार में
वो इतवार जो कभी हमारे लिए सुकून के दो पल नहीं लाता
लाता है... सिर्फ तुम्हारी छुट्टी... तुम्हारी मौज मस्ती
तुम्हारी सुबह की मस्त सैर और शाम दोस्तों संग तफ़रीह
मुझे तो संभालनी है तुम्हारी रसोई और बिस्तर जहाँ तुम्हें चाहिए सब गरमा-गरम
तुम्हारी फरमाइशों का लेखा-जोखा और सब कुछ हो वैसा चाहो तुम जैसा
वो बच्चे जिनके नाम के पीछे तुम्हारा नाम लगते ही सबके चेहरे चमक उठते हैं वो भी तुमसे कहाँ कुछ कहते हैं ?
मां ये चाहिए... ऐसा काम कर दो... से लेकर मां तुमने तो ये अभी तक किया ही नहीं... तक
मां तुम ही पापा से कह देना, उनके पास हमारे लिए समय नहीं!
लेकिन मैं किससे कहूं ?- कि उनके पास तो मेरे लिए भी वक्त नहीं
मैं.... मैं शायद वो हिस्सा हूँ जिंदगी का जिसके न होने से तो सब बिगड़ सकता है लेकिन होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।

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