रा से राम......रा से रावण......


आजकल हर त्योहार की शुरुआत होती है सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर शुभकामना संदेशों के आने से | नवरात्री और फिर दशहरा की शुरुआत भी ढेरों अलग-अलग तरह की शुभकामनाओं के संदेशों से हुई, संदेश बनाने वाले और सोचने वाले भी बहुत ही सृजनात्मक होते हैं | जैसे ही आज यह मैसेज देखा उस समय लगा कि क्रिएटिविटी की कोई हद नहीं है, इंसानी बुद्धि की सोच का कोई अंत नहीं है | तभी से बहुत तरह के विचार बार-बार ज़हन में आ रहे हैं, कितने साधारण रुप से लिखा है ! 'रा' से ही राम की शुरुआत होती है और 'रा' से ही रावण की लेकिन दोनों का अंत कितना अलग है ! हमारे जीवन में भी यह कितना कितना सटीक बैठता है, हम शून्य से शुरू करते हैं..... कोई दहाई तक पहुंचता है..... कोई सैकड़ा तक..... कोई हजार तक तो कोई लाख तक...... सब का अंत अलग अलग है | वास्तव में जीवन में महत्वपूर्ण क्या है ? शून्य से शुरुआत करना और अंत में आपके कर्म के पीछे, आपकी उपलब्धियों के पीछे कितने शून्य लगे हैं यह महत्वपूर्ण है यानी कि आप दस नंबरी हैं यह सौ नंबरी या हजार नंबरी या एक लाख नंबरी ? जिंदगी न बड़ी होती है ना छोटी होती है जिंदगी बहुत गहरी होती है उस जिंदगी में डूबकर बिल्कुल अंतः गहराई तक जाकर हम कितने मोती खींच कर ला पाते हैं अपनी मुट्ठी में यह जरूरी है | बचपन में हम हिंदी और अंग्रेजी की वर्णमाला सीखते हैं, हम गिनती सीखते हैं इसके अलावा न जाने कितना सांसारिक ज्ञान अपने अंदर बटोरे बैठे हैं कुछ अपने अनुभव से कुछ दूसरों के अनुभव से | इन सब के साथ बड़े होते हुए हम अपने कर्मों को किस श्रेणी में रख सकते हैं यह सोचने वाली बात है | आज कोई सतयुग नहीं है जो हम राम या रावण की बात करें, सतयुग में एक राम थे सतयुग में एक रावण था | श्री राम जैसे या श्री राम के गुणों से मिलते जुलते लोग शायद मिल जाते थे ऐसा हम सतयुग की कहानियों में अपने बड़े बुजुर्गों से सुनते चले आ रहे हैं लेकिन आज क्योंकि कलयुग वैसे ही बदनाम है कि हर इंसान में आज रावण है ऐसे में क्या एक श्री राम काफी होगें इतने ढेर सारे रावण के लिए और फिर आज वह दौर है जहां रावण की पूजा हो रही है यानी कि वह दौर है कि अगर झूठ को भी बीस बार चिल्ला चिल्ला कर बोलो तो वह सच लगने लगता है तो आज के दौर में राम कौन बनेगा ? मैं आज बात करूं श्री राम जैसे गुणों को अपने अंदर पैदा करने की तो लोग कलयुग की दुहाई देंगे | आज हम कहाँ भटक रहे हैं कहां भटक रहे हैं ? अंत तक पहुंचने में हमारे पास इतने भटकाव क्यों हैं ! जीवन के हमारे पैमाने स्थिर क्यों नहीं हैं? सोचने की बात है..... मेरा यह मानना है कि ऐसा कभी नहीं हो सकता कि किसी के अंदर या तो सिर्फ राम हो या तो सिर्फ रावण | कोई भी सभी गुणों से सुशोभित हो ऐसा भी संभव नहीं है और कोई सारे के सारे अवगुणों से ही भरा हो यह भी संभव नहीं है | हां हम थोड़े राम भी हैं और थोड़े रावण भी हैं..... बस हमें कोशिशें करनी है कि जहां अपने जीवन के अंत में पहुंचे अपने बीती हुई जिंदगी के बारे में सोचें तो राम का पलड़ा थोड़ा भारी हो |
असत्य पर सत्य की विजय और धर्म की जीत का पर्व दशहरा आपको आज और हर दिन बहुत मुबारक हो ! 

Comments

Popular posts from this blog

मां.... एक पिता

खुद को परखें

काश तुम कभी मिले ना होते...