खुद को परखें

                             
 
                           
                              खुद को परखें

अमूमन बचपन में हम सब के पास चाबी वाले खिलौने रहे होंगे अौर उसकी कार्य प्रणाली से भी हम सब वाकिफ हैं | इसका सीधा साधा फार्मूला है कि हमने चाबी भरी और उस खिलौने को चलाया, जितनी चाबी भरी उतना ही खिलौना चलता है, चाहे वह कलाबाज़ी करने वाला बंदर हो, ड्रम या झुनझुना बजाने वाला जोकर या कमर मटका कर नाचने वाली गुड़िया | वैसे हर खिलौने की क्षमता या कार्यप्रणाली खेलने वाले पर ही निर्भर होती है लेकिन चाबी वाले खिलौने मुझे बचपन से ही विचित्र मालूम होते थे | कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे अंदर यह विचार कहीं ना कहीं पनप रहा था कि आगे चलकर हमारी चाबी भी किसी और के हाथ में ना चली जाए ! और आज शायद हुआ भी वही | आज जो हम बनते जा रहे हैं वो दूसरों की ही देन है, क्योंकि हम जो वास्तविकता में हैं वैसे दूसरों को सौपने में डरते हैं | शायद बात ज़रा क्लिष्ट हो गई ! कहने का मतलब यह है कि जो जैसा है उससे प्रभावित होकर वैसा ही अपने आप को बनाने लगते हैं | शायद इस डर से कि फलाना हमारे बारे में गलत ना सोचने लगे या ढिमकाना क्या कहेगा....लेकिन हमें ऐसे फलाने- ढिमकाने लोगों को संतुष्ट करके क्या मिलेगा ?? यहां यह महत्वपूर्ण है | एक लंबा समय हम इन्हीं तरह की चीजों में गुजार देते हैं और अपने मूल स्वरूप को धुंधला कर देते हैं | जबकि होना यह चाहिए कि हम अपने मूल स्वरुप को सप्रेम अपनाएं और वही दूसरों के सामने भी प्रदर्शित करें | अपनी खुद की विश्वस्नीयता खोने का यह भी  एक कारण हो सकता है | क्सोंकि हम जो हैं वो हम छुपा रहे हैं और बार बार उसमे परिवर्तन कर रहे हैं | अपनी क्षमताओं- अक्षमताओं, योग्यता- अयोग्यता, ताकत- कमज़ोरी हम से बेहतर कोई नहीं जानता और खुद के बारे में यही सबसे बड़ा सच है | किसी के कह देने भर से या सुझाव देने से हमारा स्वयं के प्रति आंकलन पर संदेह करना कहीं की समझदारी नहीं है | उदाहरण स्वरूप कुछ दिन पहले एक खबर पढ़ी थी, छत्तीसगढ़ में एक युवती, रेने कुजुर के बारे में | बेहद शयाम रंग या काला ही कह लें रंग की युवती जिसने अपने रंग की वजह से बहुत लानतें सुनी आज इंडियन रिहाना के नाम से मशहूर है | बचपन में स्कूल में फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में एक बार परी बनी तो बच्चों ने और लोगों ने भी खूब मजाक बनाया और काली परी कहकर चढ़ाया था | तब से सब उसे काली परी कहने लगे | समाज द्वारा निर्धारित इसी रंगभेद के साथ वह बड़ी हुई | एक बार उसकी कुछ तस्वीरें उसके दोस्तों ने सोशल मीडिया पर अपलोड कर दी जिस पर एक शख्स ने कमेंट में लिख दिया इंडियन रिहाना बस वह दिन है और आज का दिन है रेने कुजुर आज इंटरनेशनल मॉडल हैं | 'काली परी' से लेकर 'इंडियन रिहाना' तक का सफर जरूर कठिन रहा होगा | हमारे समाज में काले रंग की चमड़ी का होना अपने आप में बदसूरती की श्रेणी में आ जाता है और उस 'काली परी' नाम ने भी रेने के अंदर खूब चाबी भरी होगी लेकिन अगर उसे काली परी नहीं बनना था तो नहीं बनी और उसी काले रंग की बदौलत आज इंटरनेशनल मॉडल बनकर वो अपनी पहचान कायम कर रही है |क्योंकि शायद वह यह जानती थी कि इस रंग रूप से वो निजात नहीं पा सकती कोई भी उपाय या क्रीम उसे आखिर किस हद तक गोरा करेगा?और फिर कुछ भी करने से वास्तविकता तो बदलेगी नहीं तो क्यों न इसी को स्वीकार करके आगे बढ़ें और अपने अंदर की क्षमताओं को पहचाने और विकसित करें |
अपनी चाबी दूसरों के हाथों में ना सौंपे क्योंकि फिर दुनिया आपसे कलाबाजी ही करवायेगी !

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