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खुद को परखें

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                                                                                          खुद को परखें अमूमन बचपन में हम सब के पास चाबी वाले खिलौने रहे होंगे अौर उसकी कार्य प्रणाली से भी हम सब वाकिफ हैं | इसका सीधा साधा फार्मूला है कि हमने चाबी भरी और उस खिलौने को चलाया, जितनी चाबी भरी उतना ही खिलौना चलता है, चाहे वह कलाबाज़ी करने वाला बंदर हो, ड्रम या झुनझुना बजाने वाला जोकर या कमर मटका कर नाचने वाली गुड़िया | वैसे हर खिलौने की क्षमता या कार्यप्रणाली खेलने वाले पर ही निर्भर होती है लेकिन चाबी वाले खिलौने मुझे बचपन से ही विचित्र मालूम होते थे | कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे अंदर यह विचार कहीं ना कहीं पनप रहा था कि आगे चलकर हमारी चाबी भी किसी और के हाथ में ना चली जाए ! और आज शायद हुआ भी वही | आज जो हम बनते जा रहे हैं वो दूसरों की ही देन है, क्योंकि हम जो वास्तविकत...